चौखुटिया का प्रसिद्ध चैत्राष्टमी मेला

प्रतिवर्ष चैत्राष्टमी के पवन पर्व पर चौखुटिया के समीप रामगंगा नदी  के तट पर अगनेरी नामक स्थान पर चैत्राष्टमी का मेला लगता है यह चौखुटिया विकाश खंड का प्रसिद्ध मेला  है अगनेरी एक प्राचीन धर्म स्थल है आज से हजारों वर्ष पूर्व कत्युरों के शासन काल में यहाँ पर एक प्राचीन मंदिर था। यहाँ पर प्रतिवर्ष माघ पूर्णिमा को रात्रि का मेल लगता था मुस्लिम शासकों के शासन काल में यहाँ के मंदिर मूर्तियों को ध्वस्त कर दिया गया सन १९०१ में गेवाड़ के सम्मानित व्यक्तियों ने इस मंदिर का जीर्णोधार कराया। इस मंदिर को भटकोट के लाछराम मिस्त्री ने बनाया था।  इसी वर्ष एक सिद्ध पुरुष महात्मा ने मंदिर के निचे रामगंगा में पड़ी हुई प्राचीन भगवती माता की मूर्ति को  नदी से निकलवाकर पुन: मंदिर में प्रस्थापित करवाया
चौखुटिया अगनेरी मांदरी 
सन १९०२ एस मल्ला गेवाड़ के दस थोकों के थोकदारों ने एक आपसी समझौता कर प्रतिवर्ष चैत्राष्टमी के दिन भगवती मंदिर की भैंस व् बकरे की परिक्रमा करवाकर बलि प्रथा को प्रचलित किया सभी थोक बारी-बारी से ढोल नगाड़ों के साथ, अपने ग्राम वासियों को लेकर, गाते-बजाते, नाचते-कूदते, पैदल मार्ग को तय करते हुए पूजा स्थल पर पहुँचते हैं। एक थोक भैंस व् बकरे को अपनी बारी से भगवती को चढाते हैं और दूसरा थोक अपनी बारी पर बीड़ा उठता है और भैंस पर प्रचंड प्रहार कर बलि देता है। प्रतिवर्ष प्रत्येक थोक वाले बारी-बारी से भैंस बकरों की बलि देता हैं कहा जाता है कि उस समय गेवाड़ घाटी में महामारी का प्रकोप होता था इस महामारी व बीमारी के प्रकोप से छुटकारा पाने के लिए इस प्रथा को मूर्त रूप दिया गया।
इस मेले के संचालन व्यवस्था के लिए सभी थोकदारों ने लिखित नियम बनाये और किसी भी आकस्मिक व्यवधान होने पर उसे दूर करने के लिए व्यवस्था की गई ताकि मेल प्रतिवर्ष सुचारू रूप से चलता रहे। इस अवसर पर रिठाचौरा के जोशी अगनेरी तथा अन्य मंदिरों के पुजारी नियुक्त किये गये और उन्हें इसके एवज में ढ़ोंन के बिष्टों ने गूंठ प्रदान की। इस मेले में जो दस थोक सामिल थे उनकी नामावली इस प्रकार है
१- ढौन, २- भटकोट, ३- सोनगांव, ४- नागाड़, ५- फुलाई, ६- गनाई, ७- सुनगढ़ी, ८- नवाण, ९- टेड़ागांव, १०- गरस्यारी।

इस वर्ष २०१३ में इस मिले को एक सौ ग्यारह वर्ष पुरे हो गये हैं । सर्वप्रथम चैत्राष्टमी का यह मेल १९०२ में प्रारंभ हुआ था। सर्वप्रथम भटकोट थोक से भैंस व बकरे भगवती मंदिर में चढ़ाये गये। पिछले वर्ष २०१२ में तक यह प्रथा सुचारू रूप से प्रचलित था ।  इस वर्ष २०१३ से इस मेले में बहुत बड़ा बदलाव किया गया । भैंस व बकरों की बलि प्रथा इस वर्ष २०१३ से बंद कर दी गयी है अब सभी थोक अपने-अपने गांव से ढोल नगाड़ों के साथ आकर मंदिर में चैत्राष्टमी की पूजा अर्चना करते हैं और सरकार ने भी मेलों को बढ़ावा देने के लिए प्रतिवर्ष प्रशासन की और से व्यवस्था बनाने के लिए धनराशी प्रदान कर रही है
प्रस्तुत कर्ता - पं० भास्कर जोशी 
यह जानकारी श्री नंदन सिंह बिष्ट जी के रंगीलो गेवाड़ पुस्तक से लिया  गया है 

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